और फिर अब्बा हुजूर मुझे यतीमखाने की सीढ़ियों पर रख आए।
अम्मी को होश आया होगा। उन्होंने अपने पास मुझे न पाया होगा। दरिंदों, जिन्नातों, बच्चाचोरों जैसे कितने ही ख़यालात उनके मन को डरा गए होंगे।
वह पागलों की तरह इधर-उधर ढूंढती भागती रही होंगी। और फिर अब्बू के घर आने पर उनसे सवालात की झड़ी लगा दी होगी। अब्बू को दुबारा मजबूर किया होगा मुझे लेकर आने के लिए।
यह सब हुआ होगा, ऐसा मैं सोचती हूँ। ऐसा मैं इसलिए सोच पाती हूँ क्योंकि अब्बा मुझे घर ले आये।
अम्मी ने बताया कि जब अब्बा तुझे सीढ़ियों से उठाने को झुके तो उन्होनें देखा कि तेरे सारे बदन से चींटियाँ चिपकी पड़ी हैं। अम्मी ने यह भी बताया कि अब्बा हुजूर बेटा चाहते थे, मगर तू आ गयी।
मैंने पूछा – अम्मी! लेकिन मेरे बाद भी तो बहन ही आयी,भाई नहीं आया। फिर अब्बा हुजूर ने यतीमखाने की सीढ़ियां मेरे लिए ही क्यों चुनी?
अम्मी के पास मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। वह बर्तनों में लगी चिकनाई हटाने में लग गईं।
सवाल लाजवाब ही रहे। वक्त बीतता गया।मेरे बदन पर मगर आज भी कुछ रेंगता रहता है। जाने वह वही चींटियां हैं या कि मेरा सवाल!!!
मौत का फ़रिश्ता और मैं इब्तदाई से ही लुका-छुपी खेल रहे थे. वह आता तो मैं छुप जाती. वह फिर आता, घेरता, बुलाता, पंजे फैलाता. मैं फिर बच निकलती. चाहे वह जानलेवा ठण्ड के रूप में यतीमखाने की सीढीयो पर आया हो या फिर लिफ्ट में फंस जाने पर मैंने उसे देखा हो.
चाहे बैजू बावरा की शूट के वक्त उसका मेरी नाव को खाई की और बहा ले जाना हो या फिर महाबलेश्वर की वह कार दुर्घटना. वह हर जगह मौजूद था. अय्यार सा.
सोचती हूँ तो लगता है कि मौत का फ़रिश्ता इतनी दफा मेरी राह में खड़ा दिखा, इतना बावफा कि मुझे उसी से आशनाई रख लेनी चाहिए थी. काफी पहले. हाँ कि शायद वही मेरा सच्चा आशिक था.
उसने एक पल भी मुझे तनहा नहीं छोड़ा. करम देखिये! याद करती हूँ तो पाती हूँ कि पहली अदाकारी के वक्त भी वह मेरे साथ ही था. थोड़ी दूर पर हाथ बांधे हुए. मुझे मरती हुई बच्ची का फन अदा करना था.
और तब! तब मैंने तूफ़ान मचा दिया था कि सफ़ेद चादर पर ही मरूंगी.
आह! रे बचपन.
Very interesting topic, thanks for putting up.Raise range